1 00:00:13,767 --> 00:00:20,767 जीवन, स्‍वतंत्रता तथा प्रसन्‍नता का अनुगमन । 2 00:00:24,633 --> 00:00:27,800 हम प्रसन्‍नता को बाहर ढूंढने में जीवन बिता देते 3 00:00:27,800 --> 00:00:30,300 हैं मानों वह कोई वस्‍तु हो । 4 00:00:30,300 --> 00:00:37,300 हम अपनी इच्‍छाओं तथा लालसाओं के गुलाम बन गए हैं । 5 00:00:39,400 --> 00:00:41,033 प्रसन्‍नता कोई ऐसी वस्‍तु नहीं जिसे ढूंढा जाए 6 00:00:41,033 --> 00:00:44,600 या सस्‍ते सूट की तरह खरीदा जा सके । 7 00:00:44,600 --> 00:00:45,767 यह माया, 8 00:00:45,767 --> 00:00:46,633 भ्रम है रूप का 9 00:00:46,633 --> 00:00:51,600 अंतहीन खेल । 10 00:00:51,600 --> 00:00:53,167 बौद्ध परंपरा में, 11 00:00:53,167 --> 00:00:56,433 संसार या पीड़ा का अंतहीन चक्र, 12 00:00:56,433 --> 00:00:58,833 प्रसन्‍नता की अभिलाषा एवं पीड़ा 13 00:00:58,833 --> 00:01:03,133 से मुक्ति से परिपूर्ण है । 14 00:01:03,133 --> 00:01:07,400 फ्रॉयड ने इसे `प्रसन्‍नता सिद्धांत़` के रूप में उल्लिखित किया है । 15 00:01:07,400 --> 00:01:10,233 हम वही सब करने का प्रयास करते हैं जिससे प्रसन्‍नता मिले या 16 00:01:10,233 --> 00:01:12,233 कुछ ऐसा प्राप्‍त किया जा सके जो हम चाहते 17 00:01:12,233 --> 00:01:19,233 हैं या उन सबसे छुटकारा, जो हम नहीं चाहते। 18 00:01:19,667 --> 00:01:23,633 यहां तक कि पैरामेशियम जैसा साधारण जीव यह कार्य करता है । 19 00:01:23,633 --> 00:01:25,900 इसे प्रेरक के प्रति प्रतिक्रिया कहा जाता है । 20 00:01:25,900 --> 00:01:30,833 पैरामेशियम से हटकर मनुष्‍यों के अधिक विकल्‍प हैं । 21 00:01:30,833 --> 00:01:34,400 हम सोचने के लिए स्‍वतंत्र हैं और वही समस्‍या का आधार है । 22 00:01:34,400 --> 00:01:41,400 हम चाहते क्‍या हैं, यही सोचना नियंत्रण से बाहर हो गया है । 23 00:02:03,600 --> 00:02:10,600 आधुनिक समाज की दुविधा यही है कि हम विश्‍व को समझना चाहते हैं, 24 00:02:14,067 --> 00:02:17,433 लेकिन अपनी आंतरिक चेतना से नहीं, 25 00:02:17,433 --> 00:02:20,067 बल्कि वैज्ञानिक साधनों तथा विचारों के माध्‍यम से बाहरी 26 00:02:20,067 --> 00:02:25,833 संसार की मात्रात्‍मकता एवं गुणवत्‍ता मूल्‍यांकित करते हैं । 27 00:02:25,833 --> 00:02:30,333 चिंतन से केवल अधिक सोच-विचार एवं अधिकाधिक प्रश्‍न उत्‍पन्‍न होते हैं । 28 00:02:30,333 --> 00:02:33,633 हम जब आंतरिक संसार को जानना चाहते हैं जिससे विश्‍व उत्‍पन्‍न और दिशा-निर्देशित होता है, 29 00:02:33,633 --> 00:02:35,667 तब हम इस सारतत्‍व को बाहरी रूप से ग्रहण करने लगते हैं । 30 00:02:35,667 --> 00:02:39,100 हम इसे एक जीवंत वस्‍तु या अपनी प्रकृति 31 00:02:39,100 --> 00:02:44,567 के अंतर्भूत के रूप में ग्रहण नहीं करते । 32 00:02:44,567 --> 00:02:47,900 प्रसिद्ध मनश्‍चिकित्‍सक कार्ल जुंग जिन्‍होंने कहा “वह व्‍यक्ति जो बाहर देखता है, 33 00:02:47,900 --> 00:02:54,900 वह सपने देखता है और वह जो अपने अंदर झांकता है, वह जागृत हो जाता है ।” 34 00:02:56,000 --> 00:03:00,433 जागने और प्रसन्‍न होने की इच्‍छा गलत नहीं है । 35 00:03:00,433 --> 00:03:04,033 गलत यह है कि खुशी को बाहर तलाशा जाए, 36 00:03:04,033 --> 00:03:11,033 जबकि इसे केवल भीतर पाया जा सकता है । 37 00:03:34,633 --> 00:03:39,733 भाग चार: सोच से आगे- लेक तहोए, कैलिफोर्निया, एरिक श्मिट– गूगल के सीईओ की 38 00:03:39,733 --> 00:03:45,833 शिल्‍पविज्ञानी सम्‍मेलन में 4 अगस्‍त, 2010 को उल्लिखित विस्‍मयकारी सांख्यिकी । 39 00:03:45,833 --> 00:03:48,433 श्मिट के अनुसार, सभ्‍यता के प्रारंभ से 2003 तक हमने 40 00:03:48,433 --> 00:03:51,267 जितनी सूचना निर्मित की, उतना अब हम प्रत्‍येक 41 00:03:51,267 --> 00:03:54,600 दो दिन में उत्‍पन्‍न करते हैं । 42 00:03:54,600 --> 00:04:01,600 जो है 5 एक्‍साबाईट्स डेटा के बराबर । 43 00:04:02,067 --> 00:04:05,600 मानव इतिहास में कभी इतनी सोच नहीं 44 00:04:05,600 --> 00:04:08,733 रही और न ही ग्रह पर इतनी हलचल। 45 00:04:08,733 --> 00:04:15,300 ऐसा तो नहीं कि हम हर समय किसी एक समस्‍या का समाधान तो कर नहीं पाते, दो और 46 00:04:15,300 --> 00:04:18,466 समस्‍याएं उत्‍पन्‍न करते हैं? 47 00:04:18,466 --> 00:04:20,499 क्‍या यह सोच ठीक है जो अत्‍यधिक 48 00:04:20,500 --> 00:04:23,133 प्रसन्‍नता की ओर न ले जाए? 49 00:04:23,133 --> 00:04:26,933 क्‍या हम अधिक प्रसन्‍न हैं? 50 00:04:26,933 --> 00:04:27,000 अधिक स्थितप्रज्ञ? 51 00:04:27,000 --> 00:04:30,267 क्‍या इस प्रकार की सोच से अधिक आनंदित हैं? 52 00:04:30,267 --> 00:04:33,167 या यह हमें जीवन के गहन तथा 53 00:04:33,167 --> 00:04:34,933 अधिक अर्थपूर्ण अनुभव से 54 00:04:34,933 --> 00:04:39,700 अलग या असंबद्ध करती है? 55 00:04:39,700 --> 00:04:45,300 सोचना, क्रियाशील होना और कार्य करना, 56 00:04:45,300 --> 00:04:47,500 इन्हें जीव के अस्तित्व के साथ संतुलित करना होगा । 57 00:04:47,500 --> 00:04:54,500 अंततोगत्‍वा हम मनुष्‍य हैं, मनुष्‍य के कार्य नहीं । 58 00:05:04,333 --> 00:05:09,533 हम परिवर्तन और स्‍थायित्‍व एक साथ चाहते हैं । 59 00:05:09,533 --> 00:05:13,133 हमारा हृदय जीवन के सर्पिल से, 60 00:05:13,133 --> 00:05:15,033 परिवर्तन के नियम से असंबद्ध हो गया है, 61 00:05:15,033 --> 00:05:18,033 चूंकि हमारा सोचने वाला मस्तिष्‍क हमें स्थिरता, 62 00:05:18,033 --> 00:05:23,067 सुरक्षा तथा चेतनाओं के शमन की ओर संचालित करता है । 63 00:05:23,067 --> 00:05:28,133 विकृत सम्‍मोहन से हम हत्‍या, सुनामी, 64 00:05:28,133 --> 00:05:34,100 भूकंप एवं युद्धों को देखते हैं । 65 00:05:34,100 --> 00:05:37,933 हम लगातार अपना मन मस्तिष्‍क व्‍यस्‍त रखते हैं और उसमें सूचनाएँ भरते हैं। 66 00:05:37,933 --> 00:05:41,400 हर कल्पनीय उपकरण से टीवी कार्यक्रमों का प्रसारण। 67 00:05:41,400 --> 00:05:43,600 खेल और पहेलियाँ । 68 00:05:43,600 --> 00:05:44,367 पाठ संदेश । 69 00:05:44,367 --> 00:05:47,833 और प्रत्‍येक संभव मामूली कार्य । 70 00:05:47,833 --> 00:05:49,567 हम अपनी चेतनाओं व संवेदनों के शमन के 71 00:05:49,567 --> 00:05:53,267 लिए नई छवियों, नई सूचना तथा नए तरीकों 72 00:05:53,267 --> 00:06:00,267 से अनंत बहाव में स्‍वयं घिर जाते हैं । 73 00:06:00,667 --> 00:06:04,133 शांत आंतरिक चिंतन के समय हमें हृदय में एहसास होता 74 00:06:04,133 --> 00:06:08,367 है कि हमारी वर्तमान वास्‍तविकता से आगे भी जीवन 75 00:06:08,367 --> 00:06:11,867 है चूंकि हम भूखे प्रेतों के संसार में जीते हैं । 76 00:06:11,867 --> 00:06:18,867 अनंत लालसाओं से भरे और कभी संतुष्‍ट न होने वाले । 77 00:06:24,067 --> 00:06:25,733 ग्रहों के आसपास हमने इतने आंकड़े फैलाए हैं, 78 00:06:25,733 --> 00:06:30,033 जिनमें संसार के निर्धारण और समस्‍याओं के निर्धारण के लिए इतनी सोच, 79 00:06:30,033 --> 00:06:33,267 इतने विचार दिए, जो केवल इस कारण से हैं 80 00:06:33,267 --> 00:06:38,467 चूंकि ये मस्तिष्‍क से निकले हैं । 81 00:06:38,467 --> 00:06:45,467 सोच ने इतना सारा बखेड़ा पैदा किया है जिसमें रहने के लिए हम अभिशप्‍त हैं । 82 00:06:45,900 --> 00:06:50,533 हम बीमारियों, शत्रुता और समस्‍याओं से जूझते रहते हैं । 83 00:06:50,533 --> 00:06:55,033 विडंबना यह है कि जिसका हम प्रतिरोध करते हैं वही अस्तित्‍व में है । 84 00:06:55,033 --> 00:06:59,167 आप जिसका जितना प्रतिरोध करते हैं, वह उतना ही ताकतवर हो जाता है । 85 00:06:59,167 --> 00:07:02,100 मांसपेशियों के व्‍यायाम की तरह, जिससे आप छुटकारा 86 00:07:02,100 --> 00:07:05,700 पाना चाहते हैं, दरअसल उसे मजबूत बना रहे हैं । 87 00:07:05,700 --> 00:07:09,733 ऐसे में, सोचने का विकल्‍प क्‍या है ? 88 00:07:09,733 --> 00:07:16,733 इस ग्रह पर अस्तित्‍व बनाए रखने के लिए मनुष्‍य किस अन्‍य प्रक्रिया का प्रयोग कर सकता है? 89 00:07:32,633 --> 00:07:35,867 यद्यपि हाल की शताब्दियों में पश्चिमी संस्‍कृति 90 00:07:35,867 --> 00:07:39,667 ने चिंतन तथा विश्‍लेषण का प्रयोग करते हुए भौतिक को उद्भासित किया, 91 00:07:39,667 --> 00:07:42,500 तथापि अन्‍य प्राचीन संस्‍कृतियों ने आंतरिक विकास 92 00:07:42,500 --> 00:07:48,600 के लिए समान रूप से सुविज्ञ प्रौद्योगिकी विकसित की है । 93 00:07:48,600 --> 00:07:51,300 हमारे आंतरिक संसार के साथ हमारा संपर्क टूटने के 94 00:07:51,300 --> 00:07:56,000 कारण ही हमारे ग्रह पर असंतुलन उत्‍पन्‍न हुआ है । 95 00:07:56,000 --> 00:07:59,667 प्राचीन आप्‍त वाक्‍य "स्वयं को जानो” 96 00:07:59,667 --> 00:08:04,567 को रूप के बाहरी संसार के अनुभव की कामना से‍ प्रतिस्‍थापित किया गया है । 97 00:08:04,567 --> 00:08:07,967 “मैं कौन हूं?” इसका उत्‍तर आपके व्‍यावसायिक कार्ड पर 98 00:08:07,967 --> 00:08:14,967 व्‍यवसाय को वर्णित करने जितना सरल नहीं । 99 00:08:15,767 --> 00:08:19,433 बौद्धधर्म में, आप अपनी चेतना की विषयवस्‍तु नहीं हैं । 100 00:08:19,433 --> 00:08:22,633 आप केवल चिंतन या विचारों का संग्रह नहीं, 101 00:08:22,633 --> 00:08:29,633 चूंकि चिंतन के पीछे वही एक है जो चिंतन का साक्षी है । 102 00:08:35,732 --> 00:08:40,699 आदेश सूचक `स्वयं को जानो` एक जेन कोआन है, एक अनुत्‍तरित पहेली। 103 00:08:40,700 --> 00:08:45,433 अंततोगत्‍वा उत्‍तर जानने के प्रयत्‍न में मस्तिष्‍क थक जाएगा । 104 00:08:45,433 --> 00:08:49,833 केवल अहं अभिज्ञान ही है जिसे उत्‍तर या प्रयोजन चाहिए, 105 00:08:49,833 --> 00:08:56,833 किसी कुत्‍ते द्वारा अपनी पूंछ का पीछा करने के समान। आप कौन हैं, 106 00:08:56,833 --> 00:09:00,967 इस सत्‍य को उत्‍तर की आवश्‍यकता नहीं, 107 00:09:00,967 --> 00:09:07,967 चूंकि सभी प्रश्‍न अहंशील मस्तिष्‍क की देन हैं । 108 00:09:08,267 --> 00:09:15,267 आप मस्तिष्‍क नहीं हैं। 109 00:09:16,433 --> 00:09:23,433 सत्‍य अधिक उत्‍तरों में नहीं है बल्कि कम प्रश्‍नों में है। 110 00:09:25,067 --> 00:09:26,733 जैसाकि जोसेफ कैंपबेल ने कहा है 111 00:09:26,733 --> 00:09:30,233 “मैं उन लोगों में विश्‍वास नहीं करता जो जीवन का अर्थ खोज रहे हैं, 112 00:09:30,233 --> 00:09:37,233 बल्कि मैं उन लोगों में विश्‍वास करता हूं जो जीवन का अनुभव कर रहे हैं ।” 113 00:09:53,000 --> 00:09:57,200 जब बुद्ध से पूछा गया “आप क्‍या हैं?” तो उन्‍होंने बस कहा, 114 00:09:57,200 --> 00:09:59,367 “मैं जागा हुआ हूं” । 115 00:09:59,367 --> 00:10:06,367 जागृत होना, इसका क्‍या अर्थ है ? 116 00:10:07,567 --> 00:10:10,600 बुद्ध ने सटीक तौर पर नहीं कहा, चूंकि प्रत्‍येक व्‍यक्ति के जीवन 117 00:10:10,600 --> 00:10:13,367 का खिलना अलग है लेकिन उन्‍होंने एक बात कही। 118 00:10:13,367 --> 00:10:20,367 यह पीड़ा का अंत है । 119 00:10:22,000 --> 00:10:24,100 प्रत्‍येक बड़ी धा‍र्मिक परंपरा में जागृत 120 00:10:24,100 --> 00:10:26,567 अवस्था के लिए एक नाम है। 121 00:10:26,567 --> 00:10:27,800 स्‍वर्ग, 122 00:10:27,800 --> 00:10:29,033 निर्वाण 123 00:10:29,033 --> 00:10:31,533 या मोक्ष । 124 00:10:31,533 --> 00:10:37,533 केवल शांत चित्‍त की आवश्‍यकता है ताकि प्रकृति के बहाव को महसूस किया जा सके - 125 00:10:37,533 --> 00:10:40,767 अन्यथा जब आपका चित्‍त शांत हो, तब यह आपके मन में घटित होगा। 126 00:10:40,767 --> 00:10:44,000 उस स्‍थैर्य में आंतरिक ऊर्जाएं जागृत हो जाएंगी और आप 127 00:10:44,000 --> 00:10:48,400 बिना प्रयास के कार्य संपन्‍न करने में सक्षम हो जाएंगे । 128 00:10:48,400 --> 00:10:55,400 जैसा कि टॉलस्‍टाय ने कहा है “चि चेतना का अनुपालन करता है”। 129 00:10:56,200 --> 00:10:58,833 स्थिरता प्राप्‍त होने पर व्‍यक्ति पौधों तथा पशुओं की 130 00:10:58,833 --> 00:11:00,800 बुद्धिमत्‍ता भी सुनना आरंभ कर देता है। 131 00:11:00,800 --> 00:11:05,567 स्‍वप्‍नों में हल्‍की सी फुसफसाहट को व्‍यक्ति 132 00:11:05,567 --> 00:11:07,533 सूक्ष्‍म प्रक्रिया से सीख जाता है, 133 00:11:07,533 --> 00:11:11,633 जिससे वे स्‍वप्‍न भौतिक रूप में सामने आ जाते हैं । 134 00:11:11,633 --> 00:11:16,767 ताओ ते चिंग में इस प्रकार के 135 00:11:16,767 --> 00:11:22,667 जीवन को “वेइ वू वेइ” कहते हैं । 136 00:11:22,667 --> 00:11:25,233 `करना, न करना` बुद्ध ने इस मार्ग को मध्‍यम मार्ग कहा है जो 137 00:11:25,233 --> 00:11:28,167 जागृति की ओर ले जाता है । 138 00:11:28,167 --> 00:11:31,467 अरस्‍तू ने स्वर्णिम मध्यमान को वर्णित किया 139 00:11:31,467 --> 00:11:35,567 – दो चरम सीमाओं के बीच मध्‍य, अर्थात् सौंदर्य का मार्ग । 140 00:11:35,567 --> 00:11:38,700 बहुत अधिक प्रयास नहीं, लेकिन बहुत कम भी नहीं। 141 00:11:38,700 --> 00:11:45,700 Yचिन एवं यांग का संपूर्ण संतुलन। 142 00:11:57,333 --> 00:12:00,400 वेदांत की माया या संभ्रम की धारणा यह है कि हम 143 00:12:00,400 --> 00:12:03,033 परिवेश का अनुभव नहीं करते, 144 00:12:03,033 --> 00:12:08,267 बल्कि विचारों द्वारा सृजित इसका प्रक्षेपण करते हैं । 145 00:12:08,267 --> 00:12:11,000 निस्‍संदेह आपके विचार कुछेक तरीके से कंपायमान 146 00:12:11,000 --> 00:12:15,833 संसार का अनुभव करवाते हैं, लेकिन हमारे 147 00:12:15,833 --> 00:12:21,567 आंतरिक समत्‍व को बाहरी घटनाओं की आवश्‍यकता नहीं। 148 00:12:21,567 --> 00:12:26,667 बाहरी संसार पर विश्‍वास, 149 00:12:26,667 --> 00:12:30,367 विज्ञान के बुनियादी सिद्धांत पर टिका है । 150 00:12:30,367 --> 00:12:34,200 लेकिन हमारी संवेदनाएं हमें केवल अप्रत्‍यक्ष सूचना देती हैं। 151 00:12:34,200 --> 00:12:37,500 इस मस्तिष्‍क निर्मित भौतिक संसार के बारे में हमारी धारणाएं संवेदनाओं के 152 00:12:37,500 --> 00:12:44,167 माध्‍यम से हमेशा निस्‍यंदित होती हैं और इसलिए हमेशा अपूर्ण रहती हैं । 153 00:12:44,167 --> 00:12:49,200 कंपन का एक क्षेत्र है जो सभी संवेदनों में अंतर्निहित है। 154 00:12:49,200 --> 00:12:53,000 ऐसी स्थिति के लोगों को `सिनेस्थेसिया` कहा जाता है, 155 00:12:53,000 --> 00:12:57,267 जो कभी-कभार विभिन्‍न तरीकों से इस कंपनशील क्षेत्र का अनुभव करते हैं। 156 00:12:57,267 --> 00:13:01,500 `सिनेस्थेसिया`, ध्‍वनियों को एक संवेदन से दूसरे 157 00:13:01,500 --> 00:13:05,433 के रंगों या आकारों में देख सकता है। 158 00:13:05,433 --> 00:13:12,433 `सिनेस्थेसिया` संवेदनाओं के संश्‍लेषण या अंतरमिश्रण से संबद्ध हैं । 159 00:13:13,200 --> 00:13:15,967 चक्र तथा संवेदनाएं संपार्श्‍व की तरह हैं 160 00:13:15,967 --> 00:13:19,967 जिससे कंपन का अविच्छिनन्न निस्यंदन होता है । 161 00:13:19,967 --> 00:13:22,700 ब्रह्माण्‍ड में सभी वस्‍तुएं कंपित हो रही हैं 162 00:13:22,700 --> 00:13:27,800 लेकिन भिन्‍न गति और नैरंतर्य से । 163 00:13:27,800 --> 00:13:31,333 होरस का नेत्र छह प्रतीकों से बना है, 164 00:13:31,333 --> 00:13:34,433 प्रत्‍येक में एक संवेदना का प्रतिनिधित्‍व है । 165 00:13:34,433 --> 00:13:36,900 प्राचीन वैदिक प्रणाली की तरह, 166 00:13:36,900 --> 00:13:43,900 विचार को संवेदना के रूप में माना गया है । 167 00:13:44,400 --> 00:13:45,933 शरीर द्वारा संवेदनाओं की अनुभूति 168 00:13:45,933 --> 00:13:48,900 के साथ-साथ विचार प्राप्त होते हैं। 169 00:13:48,900 --> 00:13:54,367 वे उसी कंपन स्रोत से उत्‍पन्‍न होते हैं । 170 00:13:54,367 --> 00:13:56,400 चिंतन बस एक साधन है । 171 00:13:56,400 --> 00:13:57,767 छह संवेदनाओं में एक । 172 00:13:57,767 --> 00:14:01,700 लेकिन हमने इसे ऐसी उच्‍च स्थिति में विकसित किया है कि हम 173 00:14:01,700 --> 00:14:07,000 स्‍वयं की पहचान अपने विचारों से करते हैं । 174 00:14:07,000 --> 00:14:10,533 वास्‍तव में यह तथ्य कि हम छह संवेदनाओं में एक के रूप में 175 00:14:10,533 --> 00:14:12,667 चिंतन की पहचान नहीं करते, अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण है । 176 00:14:12,667 --> 00:14:17,867 हम चिंतन में ऐसे लिप्‍त हैं कि सोच-विचार को संवेदना के रूप में 177 00:14:17,867 --> 00:14:20,733 व्‍याख्‍यायित करना मछली को जल के बारे में बताने की तरह हैं । 178 00:14:20,733 --> 00:14:27,733 जल, कैसा जल? 179 00:14:31,867 --> 00:14:34,667 उपनिषदों में कहा गया है, वह नहीं जिसे नेत्र देख सकता है, 180 00:14:34,667 --> 00:14:40,900 बल्कि वह जिसके माध्‍यम से नेत्र देखता है। 181 00:14:40,900 --> 00:14:47,600 उसे शाश्वत ब्रह्म के रूप में जानें, न कि वह जिसकी लोग यहाँ आराधना करते हैं । 182 00:14:47,600 --> 00:14:54,033 उसे नहीं जिसे कान सुन सकते हैं बल्कि वह, जिससे कान सुनते हैं । 183 00:14:54,033 --> 00:15:01,033 उसे शाश्वत ब्रह्म जानें न कि वह जिसकी लोग यहाँ आराधना करते हैं । 184 00:15:03,033 --> 00:15:09,300 वह नहीं जिसे बोलना स्‍पष्‍ट कर सकता है बल्कि वह, जिसके द्वारा बोल उजागर होते हैं । 185 00:15:09,300 --> 00:15:16,300 उसे शाश्वत ब्रह्म जानें न कि वह जिसकी लोग यहाँ आराधना करते हैं । 186 00:15:22,700 --> 00:15:28,900 वह नहीं जो मस्तिष्‍क सोच सकता है, बल्कि वह, जिससे मस्तिष्‍क सोचता है । 187 00:15:28,900 --> 00:15:35,900 उसे शाश्वत ब्रह्म जानें न कि वह जिसकी लोग यहाँ आराधना करते हैं । 188 00:16:04,500 --> 00:16:07,233 गत दशक में, मस्तिष्‍क के 189 00:16:07,233 --> 00:16:10,667 अनुसंधान ने बड़ी प्रगति की है । 190 00:16:10,667 --> 00:16:13,533 वैज्ञानिकों ने न्यूरो प्‍लास्टिीसिटी की खोज की; 191 00:16:13,533 --> 00:16:17,500 एक ऐसा शब्द जो यह विचार व्यक्त करता है कि मस्तिष्‍क के भौतिक तार, 192 00:16:17,500 --> 00:16:21,300 इसके माध्‍यम से संचरित होने वाले विचारों के अनुसार परिवर्तित हो जाते हैं । 193 00:16:21,300 --> 00:16:24,033 कनाडाई मनोवैज्ञानिक डोनाल्‍ड हेब्‍ब ने जैसा इसे स्पष्ट किया “तंत्रिका-कोशिकाएँ, 194 00:16:24,033 --> 00:16:31,033 जो एक साथ सक्रिय होती है, एक साथ जुड़ती है ”। 195 00:16:35,000 --> 00:16:41,000 तंत्रिका-कोशिका एक साथ जुड़ने का अभिप्राय है जब कोई व्‍यक्ति सतत ध्‍यान की मनोदशा में होता है । 196 00:16:41,000 --> 00:16:43,367 इसका अर्थ हुआ कि आपके द्वारा वास्‍तविकता के अपने 197 00:16:43,367 --> 00:16:45,633 आत्‍मनिष्‍ठ अनुभव को निर्देशित करना संभव है। 198 00:16:45,633 --> 00:16:50,167 शाब्दिक रूप में, यदि आपके विचार भय, चिंता, उद्विग्‍नता तथा नकारात्‍मकता से परिपूर्ण हैं, 199 00:16:50,167 --> 00:16:56,400 तो आप इन विचारों को अधिकाधिक पनपने के लिए संयोजन बढ़ाते हैं । 200 00:16:56,400 --> 00:16:58,800 यदि आप अपने विचारों को प्रेम, दया, 201 00:16:58,800 --> 00:17:01,800 कृतज्ञता तथा प्रसन्‍नता के लिए निर्देशित करते हैं, 202 00:17:01,800 --> 00:17:05,633 तो आप उन अनुभवों की पुनरावृत्ति के लिए तार सृजित करते हैं । 203 00:17:05,633 --> 00:17:10,032 लेकिन तब क्‍या करें यदि हम हिंसा तथा पीड़ा से घिरे हों ? 204 00:17:10,032 --> 00:17:15,766 क्‍या यह भ्रांति या महात्वाकांक्षी विचार जैसा नहीं ? 205 00:17:15,767 --> 00:17:18,233 न्यूरोप्‍लास्टिसिटी उस आधुनिक धारणा के समान नहीं है जैसे आप सकारात्‍मक 206 00:17:18,233 --> 00:17:21,833 सोच से अपनी वास्‍तविकता का सृजन कर सकते हैं । 207 00:17:21,833 --> 00:17:25,067 यह वास्‍तव में वही है जिसे बुद्ध ने 208 00:17:25,067 --> 00:17:28,667 2500 वर्ष पूर्व सिखाया था । 209 00:17:28,667 --> 00:17:33,867 विपासना-ध्‍यान या अंतर्दर्शी-ध्‍यान को आत्‍मनिर्देशित न्यूरोप्‍ला‍स्‍टीसिटी 210 00:17:33,867 --> 00:17:39,333 के रूप में वर्णित किया जा सकता है । 211 00:17:39,333 --> 00:17:45,833 आप अपनी वास्‍तविकता ठीक उसी रूप में स्‍वीकारते हैं – जैसा कि वह वास्तव में है । 212 00:17:45,833 --> 00:17:50,867 लेकिन आप विचार के पूर्वाग्रह या प्रभाव के 213 00:17:50,867 --> 00:17:54,633 बिना कंपायमान या ऊर्जावान स्‍तर 214 00:17:54,633 --> 00:17:56,833 पर संवेदन की गहराई में अनुभव करते हैं । 215 00:17:56,833 --> 00:18:00,533 तना के गहन तल पर सतत ध्‍यान के माध्‍यम से वास्‍तविकता 216 00:18:00,533 --> 00:18:07,533 की समूची विभिन्‍न धारणा के लिए तार उत्‍पन्‍न हो जाते हैं । 217 00:18:18,500 --> 00:18:21,233 अधिकांशतः हम इसके विपरीत सोचते हैं । 218 00:18:21,233 --> 00:18:27,800 हम अपने तंत्रिकीय संजाल से बाहरी विश्‍व आकार पर सतत विचार करते रहते हैं लेकिन 219 00:18:27,800 --> 00:18:34,767 हमारे आंतरिक समत्‍व को बाहरी घटनाओं पर आश्रित रहने की आवश्‍यकता नहीं है। 220 00:18:34,767 --> 00:18:37,867 परिस्थितियों का कोई महत्‍व नहीं। 221 00:18:37,867 --> 00:18:42,067 केवल मेरी चेतना का महत्‍व है। 222 00:18:42,067 --> 00:18:44,867 संस्‍कृत में ध्‍यान का अर्थ है परिमापन से मुक्ति । 223 00:18:44,867 --> 00:18:47,100 सभी तुलनाओं से मुक्‍त । 224 00:18:47,100 --> 00:18:48,800 सभी अच्छाइयों (आने वाली स्थितियों) से मुक्‍त । 225 00:18:48,800 --> 00:18:51,667 आप कुछ और बनने का प्रयास नहीं कर रहे हो । 226 00:18:51,667 --> 00:18:57,333 आप जो हैं उसी में संतुष्‍ट हैं । 227 00:18:57,333 --> 00:19:01,033 भौतिक यथार्थ की पीड़ाओं से ऊपर उठने का 228 00:19:01,033 --> 00:19:03,133 मार्ग इसे पूर्ण रूप से स्‍वीकारने में ही है । 229 00:19:03,133 --> 00:19:05,433 यह मानना कि हां यह है । 230 00:19:05,433 --> 00:19:08,133 इसलिए यह आपके भीतर घटित हो जाता है, 231 00:19:08,133 --> 00:19:15,133 न कि आप इसके भीतर होते हो । 232 00:19:21,100 --> 00:19:23,800 कोई व्‍यक्ति इस प्रकार कैसे रह सकता है 233 00:19:23,800 --> 00:19:27,467 कि चेतना अपनी अंतर्वस्‍तु से अधिक देर तक न टकराए? 234 00:19:27,467 --> 00:19:32,267 कैसे कोई व्‍यक्ति ह्रदय से छोटी-छोटी महत्‍वाकांक्षाओं को हटा सकता है । 235 00:19:32,267 --> 00:19:35,133 चेतना में संपूर्ण क्रांति होनी चाहिए । 236 00:19:35,133 --> 00:19:41,600 बाहरी संसार से आंतरिक संसार की ओर अभिविन्यास में मूलभूत रूपांतरण । 237 00:19:41,600 --> 00:19:45,900 यह इच्‍छा या केवल प्रयास द्वारा लाई गई क्रांति नहीं है । 238 00:19:45,900 --> 00:19:48,800 बल्कि यह समर्पण से संभव है । 239 00:19:48,800 --> 00:19:55,800 वास्‍तविकता की यथावत् स्‍वीकृति । (“केवल ह्रदय से ही आप आकाश छू सकते हैं”- रूमी) 240 00:20:00,733 --> 00:20:05,033 ईसा के खुले ह्रदय की छवि इस विचार को गहनता से संप्रेषित करती है 241 00:20:05,033 --> 00:20:08,500 कि व्‍यक्ति को सभी प्रकार के कष्‍टों के लिए तैयार रहना चाहिए, 242 00:20:08,500 --> 00:20:11,633 यदि व्‍यक्ति को विकासात्‍मक स्रोत के लिए अपने को खुला रखना है, 243 00:20:11,633 --> 00:20:14,800 तो उसे यह सब स्‍वीकारना चाहिए। 244 00:20:14,800 --> 00:20:17,433 इसका अर्थ यह नहीं कि आप पर-पीड़ित बन जाओ, 245 00:20:17,433 --> 00:20:18,800 आप दुख की ओर न देखो, 246 00:20:18,800 --> 00:20:23,133 लेकिन जब वह आए, 247 00:20:23,133 --> 00:20:27,167 जो अनिवार्यतः होता है, तो आप इसकी वास्‍तविकता को 248 00:20:27,167 --> 00:20:32,333 स्‍वीकारें न कि किसी अन्‍य वास्‍तविकता की अभिलाषा करें। 249 00:20:32,333 --> 00:20:33,833 हवाईवासियों का पुराना विश्‍वास है कि केवल 250 00:20:33,833 --> 00:20:37,200 हृदय के माध्‍यम से ही हम सत्‍य पा सकते हैं । 251 00:20:37,200 --> 00:20:44,200 हृदय की अपनी बुद्धिमत्‍ता मस्तिष्‍क से विशिष्‍ट होती है । 252 00:20:44,467 --> 00:20:47,633 मिस्रवासियों का विश्‍वास है कि हृदय मस्तिष्‍क नहीं, 253 00:20:47,633 --> 00:20:49,233 मानव बुद्धिमत्‍ता का स्रोत है । 254 00:20:49,233 --> 00:20:51,900 हृदय को ही आत्‍मा तथा 255 00:20:51,900 --> 00:20:54,800 व्‍यक्तित्‍व का केन्‍द्र माना गया। 256 00:20:54,800 --> 00:20:58,033 यह हृदय के माध्‍यम से ही संभव हुआ है कि दिव्‍यात्‍मा ने प्राचीन 257 00:20:58,033 --> 00:21:05,033 मिस्रवासियों को उनके सच्‍चे मार्ग का ज्ञान दिया । 258 00:21:05,533 --> 00:21:08,433 इस कथन में हृदय के सारतत्‍व को वर्णित किया गया है । " 259 00:21:08,433 --> 00:21:11,033 इसे अच्‍छा समझा गया है कि सरल 260 00:21:11,033 --> 00:21:13,600 हृदय से जीवन के पार जाएँ । 261 00:21:13,600 --> 00:21:20,600 इसका तात्‍पर्य है कि आपने ठीक से जिया । 262 00:21:21,500 --> 00:21:25,300 एक वैश्विक या आदर्श स्थिति यह है कि हृदय केन्‍द्र के जागृत 263 00:21:25,300 --> 00:21:28,267 होने पर अपनी ऊर्जा की प्रक्रिया में लोगों को 264 00:21:28,267 --> 00:21:35,267 ब्रह्माण्‍ड की ऊर्जा का अनुभव हो जाता है । 265 00:21:44,500 --> 00:21:46,900 जब आप स्‍वयं को इस प्रेम की अनुभूति करने देते हैं, 266 00:21:46,900 --> 00:21:49,567 प्रेम अनुभव करने लगते हैं, 267 00:21:49,567 --> 00:21:53,067 जब आप अपने आंतरिक संसार को बाहरी संसार से संबद्ध करते हैं, 268 00:21:53,067 --> 00:21:56,667 तो सब एकाकार हो जाता है । 269 00:21:56,667 --> 00:22:00,867 कोई तारों के संगीत का अनुभव कैसे करता है? 270 00:22:00,867 --> 00:22:04,467 हृदय कैसे खुलता है ? 271 00:22:04,467 --> 00:22:09,167 श्री रमण महर्षि ने कहा है “ईश्‍वर आपके भीतर है, 272 00:22:09,167 --> 00:22:12,067 आपकी तरह है, 273 00:22:12,067 --> 00:22:14,233 और ईश्‍वर अनुभूति या आत्‍मानुभूति 274 00:22:14,233 --> 00:22:15,967 के लिए आपको कुछ नहीं करना है। 275 00:22:15,967 --> 00:22:20,367 यह पहले ही आपकी वास्तविक और प्राकृतिक स्थिति है । 276 00:22:20,367 --> 00:22:22,667 सभी प्रकार की अभिलाषाओं – 277 00:22:22,667 --> 00:22:24,600 याचनाओं को त्‍याग दें, 278 00:22:24,600 --> 00:22:28,033 अपना ध्‍यान भीतर मोड़ें और अपना मन `स्‍व` को समर्पित कर दें, 279 00:22:28,033 --> 00:22:30,500 अपने ह्रदय में उतर जाएं । 280 00:22:30,500 --> 00:22:35,000 इसे अपने वर्तमान का जीवंत अनुभव बनाने के लिए 281 00:22:35,000 --> 00:22:42,000 आत्‍मान्‍वेषण एक प्रत्‍यक्ष तथा तात्‍कालिक मार्ग है ।” 282 00:22:48,500 --> 00:22:52,033 जब आप ध्‍यानमग्न होते हैं और अपने भीतर, अपनी आंतरिक जीवंत संवेदनाएं देखते हैं, 283 00:22:52,033 --> 00:22:58,133 तो वास्‍तव में आप अपना परिवर्तन देखते हैं । 284 00:22:58,133 --> 00:23:01,367 परिवर्तन की यह शक्ति, ऊर्जा परिवर्तन के आकार में 285 00:23:01,367 --> 00:23:03,800 उद्भूत होती है और आगे बढ़ती जाती है । 286 00:23:03,800 --> 00:23:08,567 वह मात्रा, जिसमें व्‍यक्ति विकसित या जागृत हुआ है, 287 00:23:08,567 --> 00:23:11,267 वह दशा है जिसमें व्‍यक्ति ने प्रत्‍येक क्षण 288 00:23:11,267 --> 00:23:13,467 को अंगीकार करने के लिए क्षमता 289 00:23:13,467 --> 00:23:16,267 अर्जित की है या परिस्थितियों, पीड़ा और 290 00:23:16,267 --> 00:23:19,567 आनंद के सतत परिवर्तित मानवीय प्रवाह 291 00:23:19,567 --> 00:23:26,567 को परमानंद में रूपांतरित कर दिया है । 292 00:23:29,033 --> 00:23:32,767 `युद्ध और शांति` के लेखक लियो टॉल्‍स्‍टाय ने कहा है 293 00:23:32,767 --> 00:23:36,500 “प्रत्‍येक व्‍यक्ति संसार को बदलने की सोचता है, 294 00:23:36,500 --> 00:23:43,500 लेकिन कोई भी व्‍यक्ति स्‍वयं को बदलने की नहीं सोचता ।” 295 00:23:45,400 --> 00:23:47,733 डार्विन ने कहा है कि जीव के अस्तित्‍व के लिए 296 00:23:47,733 --> 00:23:52,367 अत्‍यधिक महत्‍वपूर्ण विशेषता ताकत या बुद्धिमत्‍ता 297 00:23:52,367 --> 00:23:59,367 की नहीं बल्कि परिवर्तन के अनुकूलन की है । 298 00:24:08,600 --> 00:24:11,767 अंगीकार करने में कुशल हो जाना चाहिए । 299 00:24:11,767 --> 00:24:15,333 यही बुद्ध की शिक्षा है “अणिका” – 300 00:24:15,333 --> 00:24:19,767 प्रत्‍येक वस्‍तु प्रकट और विलुप्‍त, 301 00:24:19,767 --> 00:24:21,700 परिवर्तित हो रही है – 302 00:24:21,700 --> 00:24:28,700 सतत परिवर्तन। पीड़ा इसलिए अस्तित्व में है क्योंकि हम विशिष्‍ट स्वरूप से मोहासक्‍त हो जाते हैं । 303 00:24:31,700 --> 00:24:34,600 जब आप अणिका को समझते हुए स्वयं के प्रत्यक्षदर्शी अंश से जुड़ जाओगे, 304 00:24:34,600 --> 00:24:41,600 तो ह्रदय में परमानंद उत्‍पन्‍न हो जाएगा । 305 00:25:12,933 --> 00:25:19,933 पूरे इतिहास में संतों, महात्‍माओं और योगियों ने सर्वसम्‍मति से पवित्र 306 00:25:26,867 --> 00:25:31,067 मिलन का वर्णन किया है जो ह्रदय में घटित होता है । 307 00:25:31,067 --> 00:25:33,667 भले ही क्रॉस के सेंट जॉन का लेखन हो, 308 00:25:33,667 --> 00:25:36,000 रूमी का काव्‍य हो 309 00:25:36,000 --> 00:25:39,767 या भारत की तांत्रिक शिक्षाएं, 310 00:25:39,767 --> 00:25:41,867 इन सभी भिन्‍न शिक्षाओं ने ह्रदय के सूक्ष्‍म रहस्‍य 311 00:25:41,867 --> 00:25:47,133 को अभिव्‍यक्‍त करने का प्रयास किया है । 312 00:25:47,133 --> 00:25:50,733 हृदय में शिव और शक्ति की संयुक्ति है । 313 00:25:50,733 --> 00:25:54,567 पुरुषोचित प्रभाव जीवन के सर्पिल में उतरता है 314 00:25:54,567 --> 00:25:59,233 और स्‍त्री-सुलभता परिवर्तन के प्रति समर्पण करती है । 315 00:25:59,233 --> 00:26:00,067 इन सबका दर्शन 316 00:26:00,067 --> 00:26:06,733 और बिना शर्त उनकी स्‍वीकृति । 317 00:26:06,733 --> 00:26:08,133 अपना हृदय उद्घाटित करने के उपक्रम में 318 00:26:08,133 --> 00:26:11,533 आपको परिवर्तन भी स्वीकार करना होगा। 319 00:26:11,533 --> 00:26:14,233 इस ठोस प्रतीत होने वाले संसार में 320 00:26:14,233 --> 00:26:15,533 रहने के लिए इसके साथ नृत्‍य करें, 321 00:26:15,533 --> 00:26:17,167 इसमें शामिल हों, 322 00:26:17,167 --> 00:26:18,433 पूर्ण रूप में जिएं, 323 00:26:18,433 --> 00:26:20,500 पूर्णतः प्रेम करें, 324 00:26:20,500 --> 00:26:23,300 लेकिन यह भी जानें कि यह नश्‍वर है और अंततोगत्‍वा 325 00:26:23,300 --> 00:26:30,000 सभी रूपाकार समाप्‍त या परिवर्तित हो जाते हैं । 326 00:26:30,000 --> 00:26:33,800 परमानंद वह ऊर्जा है जो नीरवता के प्रति प्रतिक्रिया दर्शाती है । 327 00:26:33,800 --> 00:26:37,600 यह चेतना से सभी विषय-वस्‍तुओं को हटाने से आती है । 328 00:26:37,600 --> 00:26:42,033 नीरवता से उत्‍पन्‍न यह परमानंद ऊर्जा की विषयवस्‍तु ही चेतना है । 329 00:26:42,033 --> 00:26:45,033 ह्रदय की नई चेतना । 330 00:26:45,033 --> 00:26:48,700 चेतना जो सभी प्राणियों से संबद्ध है �