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समाधि
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एक प्राचीन संस्कृत शब्द है, जिसके बराबर
कोई आधुनिक शब्द नहीं है।
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समाधि के बारे में फिल्म बनाना
एक महत्वपूर्ण चुनौती है।
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समाधि उस चीज के बारे में बताती है
जिसे दिमागी स्तर पर नहीं बताया जा सकता है।
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यह फिल्म मेरी अंदरूनी यात्रा की
बाहरी अभिव्यक्ति है।
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इसका उद्देश्य आपको समाधि के बारे में बताना और
आपके मस्तिष्क के लिए जानकारी देना नहीं, बल्कि
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आपको अपने सही व्यक्तित्व की खोज करने के लिए
प्रेरित करना है।
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समाधि अब पहले से कहीं ज़्यादा प्रासंगिक है।
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हम इतिहास के उस दौर में है जहाँ हमने न केवल समाधि को
भुला दिया, बल्कि हमने उसे भुला दिया
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जो हम भूल चुके हैं।
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यही भूलना माया है, आत्म का भ्रम।
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मनुष्य के तौर पर हम अपनी रोजाना की जिंदगी में
डूबे रहते हैं, यह भूल कर कि हम कौन हैं
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हम यहाँ क्यों हैं, या हम कहाँ जा रहे हैं।
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हम में से ज्यादातर ने अपनी आत्मा या फिर
बुद्ध ने जिसे श्रेष्ठ कहा, उसे जाना ही नहीं |
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- वह जो नाम, रूप और
सोच से परे है।
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नतीजतन हम यह मानते हैं कि
हम ये सीमित तत्व हैं।
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हम होश में या बेहोशी में, इस डर के साथ जीते हैं
कि जिस सीमित संरचना में हमें जाना जाता है
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वह मृत हो जाएगा।
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आज की दुनिया के ज्यादातर लोग
जो आध्यात्मिक और धार्मिक कर्म करते हैं
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जैसे कि योग, प्रार्थना, ध्यान, भजन या
किसी भी तरह की पूजा करते हैं वे
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ऐसी तकनीकों का अभ्यास करते हैं जो अनुकूल हैं।
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मतलब वे केवल हमारे
अहंकार निर्माण का हिस्सा हैं।
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अन्वेषण और गतिविधि समस्या नहीं है-
यह सोचना समस्या है कि आपको किसी
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बाहरी स्वरूप में समाधान मिल गया है।
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अध्यात्म अपने सामान्य रूप में उस
तर्कहीन सोच से बिल्कुल भी अलग नहीं है
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जोकि चारों ओर प्रचलित है।
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यह दिमाग की एक और खलबली है।
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यह मनुष्य के होने से ज़्यादा मनुष्य के करने से जुड़ा है।
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अहंकार विधान अधिक पैसा, अधिक शक्ति,
अधिक प्रेम, सब कुछ अधिक चाहता है।
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तथाकथित आध्यात्मिक मार्ग के राही चाहते हैं कि
वे अधिक आध्यात्मिक, अधिक जागृत, अधिक समृद्ध
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अधिक शांतिपूर्ण, अधिक स्थितप्रज्ञ बनें।
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इस फिल्म को देखने का खतरा यह है कि
आपका दिमाग समाधि पाना चाहेगा।
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इससे अधिक खतरनाक है कि आपका दिमाग
सोच सकता है कि उसने समाधि प्राप्त कर ली है।
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जब भी कुछ पाने की इच्छा होती है तो
आप यह समझ जाएं कि यह अहंकार निर्माण है
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जो कार्यरत है।
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समाधि कुछ पाने या अपने में
कुछ और जोड़ने का नाम नहीं है।
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समाधि हासिल करना मरने से पहले
मरना सीखना है।
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जीवन और मृत्यु यिन और यांग की तरह हैं - एक
अविभाज्य प्रवाह।
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अंतहीन खुलासा, बिना किसी शुरुआत और अंत के।
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जब हम मौत को दूर ढकेलते हैं
तो हम जीवन को भी धक्का देते हैं।
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जब आप यह सच्चाई जान लेते हैं कि आप कौन हैं
तब न जीवन के लिए कोई डर रह जाता है
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ना मृत्यु के लिए।
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हम कौन हैं यह हमें हमारा समाज और हमारी संस्कृति
बताती है, और साथ ही हम अपनी अंदरूनी
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उन शारीरिक इच्छाओं और भटकाव के गुलाम होते हैं
जो हमारी पसंद को नियंत्रित करते हैं
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अहंकार निर्माण दोहराव की कोशिश से बढ़कर
कुछ नहीं।
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यह बस वो एक रास्ता है जिसे कार्य-शक्ति ने चुना था
और शक्ति की उस रास्ते पर दोबारा
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चलने की आदत है, वह चाहे जीव के लिए
सही हो या गलत।
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दिमाग या याददाश्त के कई स्तर होते हैं,
सर्पिल चक्र के अंदर चक्र।
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जब आपकी समझ आपके मन और आपके अहंकार से
मेल खाती है तो यह आपको सामाजिक व्यवस्था से
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बांध देती है जिसे आप मैट्रिक्स भी कह सकते हैं।
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अहंकार के कई पहलुओं के बारे में
हम सचेत रह सकते हैं, लेकिन यह बेसुधी,
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आदिम बंधन, पुराने डर हैं जो दरअसल
पूरे यंत्र को चला रहे हैं।
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खुशी की ओर बढ़ने वाले और दर्द से दूर
भागने वाले तमाम तरीके रोगियों जैसे
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व्यवहार में बदल जाते हैं .... हमारा काम ....
हमारे रिश्ते .... हमारी मान्यताएं
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हमारी सोच और हमारा जीवन जीने का पूरा तरीका।
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ज्यादातर लोग, मैट्रिक्स में अपना जीवन उलझा कर
भेड़ बकरियों की तरह बेकार का जीवन जीते और मरते हैं।
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हम बहुत ही संकीर्ण तरीकों में बंद होकर जीवन जीते हैं।
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जीवन अक्सर जो बेहद दर्द से भरा होता है और
हमें यह तक महसूस नहीं होता कि हम
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आजाद भी हो सकते हैं।
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अतीत से प्राप्त विरासती जीवन को छोड़ा जा सकता है,
उस जीवन को जीने के लिए
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जो अंदरूनी दुनिया से बाहर आना चाहता है ।
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हम सबने इस संसार में जैविक सीमित संरचना के साथ
जन्म लिया है, लेकिन बिना अपने बारे में जाने।
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अक्सर जब आप किसी छोटे बच्चे की आंखों में देखते हैं, तो वहां
व्यक्तित्व का कोई निशान नहीं होता, बल्कि जगमग खालीपन होता है।
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जिस व्यक्ति में वह तब्दील होता है,
वह चेतना पर पहना मुखौटा है।
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शेक्सपियर ने कहा था, "सारी दुनिया एक मंच है,
और सभी पुरुष और महिलाएं केवल कलाकार हैं"।
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एक जागृत व्यक्ति में, चेतना उसके व्यक्तित्व
और उसके मुखौटे के माध्यम से चमकती है ।
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जब आप जागृत होते हैं, तब आप
अपने किरदार से नहीं पहचाने जाते।
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आप यह मानते ही नहीं कि आप
वह मुखौटा हैं जो आपने पहन रखा है।
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लेकिन आप भूमिका निभाने से पीछे भी नहीं हटते।
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जब हम अपने चरित्र और अपने व्यक्तित्व से पहचाने जाते हैं
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तो यही माया है, स्वयं का भ्रम।
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जीवन रूपी नाटक में अपने किरदार के सपने से जागना समाधि है।
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प्लेटो के गणतंत्र लिखने के चौबीस सौ साल बाद भी,
मानवता अभी भी प्लेटो की गुफा से
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बाहर निकल रही है।
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दरअसल अब हम भ्रम को पहले से भी ज्यादा मानने लगे हैं।
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प्लेटो ने सुकरात से लोगों के उस समूह की व्याख्या चाही
जो जीवन भर गुफा में ज़ंजीर से बंधे हुए जी रहे थे,
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एक खाली दीवार का सामना करते हुए।
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वे बस चीजों की दीवार पर पड़ने वाली उन परछाई को ही
देख सकते थे जो उनके पीछे रखी
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आग की वजह से बनती थी।
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कठपुतलियों का यह तमाशा ही उनकी दुनिया थी।
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सुकरात के अनुसार ये परछाइयां ही
कैदियों की दुनिया की
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वास्तविकता थी।
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बाहरी दुनिया के बारे में बताए जाने के बावजूद
वे यह मानते रहे की परछाइयां ही
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सब कुछ है।
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इस संदेह के बावजूद कि इसके अलावा भी कुछ और है
वे उसे छोड़ने को तैयार नहीं थे जिसे वे
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जानते थे।
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मानवता आज उन लोगों की तरह है जिन्होंने
सिर्फ गुफा की दीवारों पर परछाइयां ही देखी हैं
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परछाइयां हमारे विचारों की तरह है।
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सोच की दुनिया ही एकमात्र दुनिया है
जिसे हम जानते हैं।
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लेकिन एक और दुनिया है जो
सोच से परे है।
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द्वैतवादी मन से परे।
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क्या आप गुफा छोड़ने के लिए तैयार हैं, उस सच्चाई को
जानने के लिए सबकुछ छोड़ने को तैयार हैं
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कि आप कौन हैं?
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समाधि अनुभव करने के लिए जरूरी है कि
आप परछाइयों से दूर हो जाएं,
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विचारों से दूर उजाले की ओर।
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जब किसी व्यक्ति को अंधेरे की आदत होती है
तब उसे धीरे-धीरे आदी बनना पड़ता है
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उजाले का।
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नए परिवेश में रहने की आदत डालने के लिए,
समय और प्रयास की ज़रूरत होती है, और चाहिए
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नए को ढूंढने और पुराने को भुलाने की इच्छाशक्ति।
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दिमाग की तुलना चेतना के जाल, भूलभुलैया
या जेल से की जा सकती है।
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ऐसा नहीं है कि आप जेल में हैं, बल्कि आप स्वयं जेल हैं।
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जेल एक भ्रम है।
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यदि आपकी पहचान एक छलावे वाले व्यक्ति के
रूप में होती है तो आप सोये हुए हैं।
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आपको जब जेल के बारे में पता हो, और आप भ्रम से
बाहर आने के लिए लड़ रहे हों, तब आप भ्रम को
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सच मान रहे होते हैं और सोये हुए होते हैं,
बस इस बार आपका स्वप्न एक
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दुःस्वप्न बन जाता है।
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आप हमेशा परछाई का पीछा करते
और उससे भागते रहेंगे।
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समाधि अपने अलग अस्तित्व या अहंकार निर्माण के
सपने से जागने का नाम है।
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समाधि उस जेल की पहचान से निकलने का नाम है
जिसे 'मैं' कहना चाहूँगा।
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आप वास्तव में कभी भी मुक्त नहीं हो सकते हैं,
क्योंकि जहां भी आप जाते हैं वहीं जेल होती है।
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जागरूकता दिमाग या मैट्रिक्स से छुटकारा पाने का नाम नहीं,
बल्कि, इसके विपरीत जब आप उससे पहचाने नहीं जाते,
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तब आप जीवन के खेल का आनंद अच्छे से ले पाएंगे,
बिना किसी लालसा या डर के
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पूरी लीला का आनंद जस के तस लेते हुए।
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प्राचीन शिक्षा में इसे लीला का दिव्य खेल कहा जाता था: द्वन्द्व में
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जीने का खेल
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मानव चेतना एक निरंतरता है।
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एक छोर पर, मनुष्यों की पहचान भौतिक आत्म से होती है।
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दूसरे छोर पर है समाधि, आत्म का अंत।
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समाधि की ओर ले जाने वाले अंतहीन रास्ते का हर कदम,
पीड़ा को कम कर देता है।
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कम पीड़ा का मतलब यह नहीं है कि
जीवन दर्द से मुक्त है।
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समाधि दर्द और खुशी के द्वंद्व से
आगे की बात है।
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इसका मतलब है कि जो भी खुलासा होता है
उस पर कम ध्यान और स्वतः निर्मित कम प्रतिरोध
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और यह प्रतिरोध ही है जो
पीड़ा को जन्म देता है।
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एक बार समाधिस्थ होना भी आपको अंतहीन विस्तार के
दूसरे छोर पर क्या है, यह देखने देती है।
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यह देखना कि भौतिक संसार और खुदगर्जी के अलावा
कुछ और भी है।
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समाधि में जब अपने स्वरूप का वास्तविक अंत होता है
तो कोई अहंकारी विचार नहीं रह जाता,
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न कोई आत्म, न द्वंद्व लेकिन फिर भी रहता है
मैं हूँ, श्रेष्ठ या अस्मिता।
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उस खालीपन में ही शुरुआत होती है प्रज्ञा या
बुद्धिमता की- यह सोच कि अंतर्भूत आत्म
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द्वन्द्वात्मक खेल और सारी निरंतरता से परे है।
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अंतर्भूत आत्म कालातीत, अपरिवर्तनीय,
हमेशा वर्तमान होता है।
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ज्ञानोदय, मूल सर्पिल चक्र, हमेशा बदलती दुनिया
या उस कमल में विलय का नाम है
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जिसमें समय आपके शाश्वत अस्तित्व में प्रकट होता है।
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जब आप आत्म से पहचान हटा लेते हैं तो आपके अंदरूनी तार
हमेशा खिलने वाले फूल की तरह खिलते हैं और
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समय की दुनिया और अनंत के बीच
एक जीवित पुल बन जाते हैं।
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अंतरात्मा को समझना केवल
पथ की शुरुआत भर है।
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ध्यानमग्न होते समय ज्यादातर लोगों को अनगिनत बार
समाधि में जाने और उसके भंग होने का एहसास होगा
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तब जाकर वे इसे जीवन के अन्य पहलुओं में जोड़ पाएंगे।
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ध्यान या आत्म मंथन के दौरान अपने
अस्तित्व की प्रकृति के बारे में गहन अंतर्दृष्टि
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असामान्य बात नहीं है और आप
फिर से पुराने रंग में ढल जाते हैं,
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इस सच्चाई को भुलाकर कि आप कौन हैं।
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जीवन के हर पहलू, अपने अस्तित्व के
हर पहलू में स्थिरता या खालीपन को
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समझने का मतलब, खालीपन का
हरेक चीज़ के रूप में नर्तन।
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स्थिरता गति से अलग नहीं है।
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यह गति के विपरीत नहीं है।
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समाधि में स्थिरता को गति के बराबर माना जाता है,
आकार खालीपन के समान है।
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यह मन के लिए बेतुका है क्योंकि
मन का अर्थ है द्वंद का अस्तित्व में आना।
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रेन डेकार्ट्स, पश्चिमी दर्शन के पिता, अपनी बात
"मैं सोचता हूँ इसलिए मैं हूँ" के लिए
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प्रसिद्ध है।
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कोई और कथन इतने स्पष्ट रूप से सभ्यता के
पतन और गुफा की दीवारों पर
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परछाइयों के साथ एकीकरण को नहीं समझा सकता।
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हर मानव की गलती की ही तरह, डेकार्ट्स ने भी
मौलिक अस्तित्व की बराबरी,
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सोच से करने की गलती की।
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अपने सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ की शुरुआत में,
डेकार्ट्स ने लिखा था कि लगभग हर चीज़ को
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संदेह के घेरे में लिया जा सकता है; वे अपनी इन्द्रियों और
अपनी सोच तक पर संदेह कर सकते हैं।
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इसी तरह कलाम सूत्र में बुद्ध ने कहा कि
सत्य का पता लगाने के लिए,
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सभी परंपराओं, शास्त्रों, शिक्षा, दिमाग
और चेतना की हर बात पर
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संदेह करना चाहिए।
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इन दोनों ही लोगों ने बड़े अविश्वास से शुरुआत की,
लेकिन अंतर यह था कि डेकार्ट्स ने
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सोच के स्तर पर ही जानना बंद कर दिया था,
वहीं बुद्ध गहराई में गए- उन्होंने मन के
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गूढ़ स्तरों को समझने का प्रयास किया।
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शायद अगर डेकार्ट्स अपनी सोच से परे जाते,
तो वे अपनी असली प्रकृति को महसूस करते
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और पश्चिमी चेतना आज बिलकुल अलग होती।
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इसके बजाय, डेकार्ट्स ने एक ऐसे दुष्ट
राक्षस की संभावना जताई जो हमें
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भ्रम के पर्दे में रख रहा हो।
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डेकार्ट्स ने इस दुष्ट राक्षस की पहचान
उसके कर्मों से नहीं की।
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जैसा कि फिल्म मैट्रिक्स में दिखाया गया, हम सभी
ऐसे विस्तृत प्रोग्राम से जुड़े हो सकते हैं जो हमें
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भ्रमपूर्ण सपनों की दुनिया से जोड़ता है।
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फिल्म में, मनुष्य मैट्रिक्स में अपना जीवन जीते हैं,
जबकि एक और स्तर पर वे केवल
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बैटरी थे, अपनी जीवन शक्ति उन यंत्रों को देने वाले
जो उनकी ऊर्जा का इस्तेमाल
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अपने उद्देश्य के लिए करते हैं।
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लोग हमेशा अपने से अलग बाहरी चीज़ को
दोष देना चाहते हैं, दुनिया की हालत
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या अपने स्वयं के दुःख के लिए।
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चाहे वह कोई व्यक्ति हो, विशेष समूह या देश हो,
धर्म या किसी प्रकार का नियंत्रक
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डेकार्ट्स के बुरे राक्षस या मैट्रिक्स के संवेदनशील यंत्रों की तरह।
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विडंबना यह है कि जिन राक्षसों की कल्पना डेकार्ट्स ने की
उन्ही से उसने स्वयं को
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परिभाषित भी किया।
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जब आप समाधि पा लेते हैं, तो यह स्पष्ट हो जाता है
कहीं पर कोई नियंत्रक है, कोई यंत्र,
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और कोई दुष्ट राक्षस, जो हर रोज़
आपके जीवन को निचोड़ रहे हैं।
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आप मशीन हैं
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आपकी स्वयं की संरचना कई छोटे सब-प्रोग्राम
या छोटे मालिकों से बनी है।
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एक ऐसा छोटा मालिक जो खाना चाहता है,
दूसरा पैसा चाहता है, तो किसी को हैसियत, पद, ताकत
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सेक्स,आत्मीयता चाहिए।
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किसी को दूसरों की समझ या उनका ध्यान चाहिए।
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इच्छाएं सचमुच अंतहीन होती हैं और
कभी भी तृप्त नहीं हो सकतीं।
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हम अपनी जेलों को सजाने में, अपने मुखौटे को
सुधारने के दबाव में, और छोटे मालिकों के
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पोषण में काफी समय खर्च करते हैं
जिससे वे काफी शक्तिशाली हो जाते हैं।
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किसी नशेड़ी की तरह ही, जितना ज़्यादा हम छोटे मालिकों की खुशामदी की
कोशिश करते हैं, उतनी ज़्यादा हमारी लालसा बढ़ जाती है।
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आजादी का मार्ग आत्म सुधार, या किसी भी तरह
अपने स्वार्थ की पूर्ति करना नहीं है,
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बल्कि यह अपने स्वार्थ को पूरी तरह त्याग देना है।
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कुछ लोग डरते हैं कि उनकी असली प्रकृति के जागने से
वे अपना व्यक्तित्व
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और जीवन का आनंद खो देंगे।
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जबकि सच्चाई इसके विपरीत है; आत्मा का अद्वितीय
वैयक्तिकरण केवल तभी व्यक्त किया जा सकता है
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जब अनुकूलित आत्म पर काबू पाया जा सके।
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क्योंकि हम मैट्रिक्स में सोते रहते हैं, इसलिए हम में से
अधिकांश लोग यह कभी नहीं जान पाते कि वास्तव में
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आत्मा क्या कहना चाहती है
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समाधि के मार्ग में ध्यान शामिल है, जो
दोनों को देख रहा है, अनुकूलित आत्म; जो
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बदल जाता है, और आपके असली स्वरूप की समझ;
वह जो बदलता नहीं।
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जब आप अपने अस्तित्व के स्रोत, अचल बिंदु पर आते हैं,
तब आप आगे के निर्देशों का इंतजार यह जानने पर
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ज़ोर दिए बिना करते हैं कि आपकी बाहरी दुनिया
कैसे बदलेगी।
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मेरी इच्छा नहीं, बल्कि इससे उच्चतर संपन्न होगा।
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यदि दिमाग केवल बाहरी दुनिया को बदलने की
कोशिश करता है, तो आपको लगता है कि
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पथ क्या होना चाहिए, यह परछाई को बदल कर
शीशे में अपनी छवि बदलने
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जैसा है।
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दर्पण में दिख रही छवि की मुस्कान के लिए
आप से प्रतिबिंब को नहीं बदल सकते,
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आपको उस स्वयं को पाना होगा
जो छवि का सही स्रोत है।
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जब आप अपने असली आत्म का एहसास कर लेते हैं,
तो इसका मतलब यह नहीं होता कि जो बाहर है
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उसे बदलना ही है।
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जो बदलता है वह चेतन, बुद्धिमान, आंतरिक ऊर्जा
या प्राण होता है जोकि अनुकूलित स्वरूपों से
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आज़ाद होता है और आत्मा से निर्देशित होने के लिए
उपलब्ध हो जाता है।
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आप आत्मा के उद्देश्य को तभी जान सकते हैं
जब आप अनुकूलित आत्म और उसके
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अनंत लक्ष्यों को देख सकें, और उन्हें जाने दें।
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ग्रीक पौराणिक कथाओं में, यह कहा गया कि
देवताओं ने सिसिफस की निंदा एक अर्थहीन कार्य को
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अनंत काल तक दोहराने के लिए की थी।
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उसका काम पहाड़ पर उस बड़े पत्थर को
चढाने का था, जो वापस लुढ़क आता था।
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फ्रांसीसी
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अस्तित्ववादी और नोबेल पुरस्कार विजेता लेखक,
अल्बर्ट कैमस ने सिसिफस की हालत को
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मानवता के रूपक की तरह देखा ।
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उसने प्रश्न पूछा, 'हम इस बेतुके अस्तित्व में
अर्थ कैसे प्राप्त कर सकते हैं?'।
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इंसानों के रूप में हम अंतहीन मेहनत करते हैं, जो कभी नहीं आता
उस कल के लिए निर्माण करते हैं, और फिर
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हम मर जाते हैं।
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अगर हम वास्तव में इस सच्चाई को महसूस कर लेते हैं
तो हम अपने अहंकारी व्यक्तित्व से जुड़ कर
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या तो पागल हो जाएंगे या फिर जागृत होकर आज़ाद हो जाएंगे।
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हम बाहरी संघर्ष में कभी सफल नहीं हो सकते,
क्योंकि यह हमारे भीतर की दुनिया का
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प्रतिबिंब है।
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ब्रह्माण्डीय मजाक, स्थिति का बेतुकापन
स्पष्ट हो जाता है जब अहंकारी आत्म
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अपने बेकार कार्यों से जागृत होने में विफल हो जाता है।
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जेन में एक कहावत है, "ज्ञानोदय से पहले
लकड़ी काटो और पानी ले लो।
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ज्ञान पाने के बाद, लकड़ी काटो, पानी ले लो"।
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ज्ञानोदय से पहले गेंद को पहाड़ी पर
चढ़ाना होगा, ज्ञान प्राप्ति के बाद भी
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गेंद को पहाड़ पर चढ़ाना होगा।
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बदला क्या है?
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जो है उसके लिए आंतरिक प्रतिरोध।
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संघर्ष रोक दिया गया है, या फिर
यूं कहें की जो संघर्ष करता है उसे ही
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भ्रामक पाया गया।
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व्यक्तिगत इच्छा या व्यक्तिगत मनऔर
दैवीय इच्छा, या उच्चतर मन एक सीध में होते हैं।
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अंततः समाधि सभी आंतरिक प्रतिरोधों को त्यागना है -
सभी बदलती हुई घटनाओ को बिना किसी
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अपवाद के।
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जो परिस्थिति के बावजूद आंतरिक शांति का
एहसास कर लेता है, वही प्राप्त करता है
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सच्ची समाधि।
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आप प्रतिरोध इसलिए नहीं करते क्योंकि किसी न किसी चीज़ की
अनदेखी करते हैं, बल्कि इसलिए कि आपकी
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आतंरिक आज़ादी बाहर प्रासंगिक न हो।
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यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि जब हम वास्तविकता को
स्वीकार करते हैं, तो इसका मतलब यह नहीं कि
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हम दुनिया में कार्रवाई करना बंद कर दें,
या हम ध्यानमग्न शांतिवादी बन जाते हैं।
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दरअसल सच्चाई इसके विपरीत हो सकती है; जब हम
असुविधाजनक उद्देश्यों से प्रेरित हुए बिना कार्य करने के लिए
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स्वतंत्र होते हैं, तब हमारी आतंरिक ऊर्जा की
पूर्ण शक्ति के साथ, ताओ के अनुरूप
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कार्य किया जा सकता है।
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कई लोग तर्क देंगे कि दुनिया को बदलने और
शांति कायम करने के लिए ज़रूरी है
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हमारे कथित दुश्मनों के खिलाफ ज़ोरदार लड़ाई की।
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शांति के लिए लड़ना सन्नाटे के लिए चिल्लाने के समान है;
यह वही ज़्यादा करता है जो आप नहीं चाहते।
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आजकल हर चीज़ के विरुद्ध युद्ध छिड़ा हुआ है:
आतंक के खिलाफ युद्ध, बीमारी के खिलाफ युद्ध,
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भूख के खिलाफ युद्ध।
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दरअसल हर युद्ध हमारे ही विरुद्ध है।
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यह लड़ाई एक सामूहिक भ्रम का हिस्सा है।
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हम कहते हैं कि हम शांति चाहते हैं, लेकिन हम
युद्ध करवाने वाले नेताओं को ही चुनते रहते हैं।
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हम खुद से झूठ बोलते हैं यह कह कर कि हम
मानवाधिकारों के पक्षधर हैं, लेकिन कारख़ानों में बनी
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चीज़ों को खरीदते रहते हैं।
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हम कहते हैं कि हमें स्वच्छ हवा चाहिए,
लेकिन हम प्रदूषण करते रहते हैं।
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हम चाहते हैं कि विज्ञान कैंसर से हमारा इलाज करे, लेकिन
खुद को बीमार करने वाली उन आदतों को नहीं बदलते
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जिनसे हम बीमार पड़ सकते हैं।
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हम खुद को धोखा देते हैं कि हम
एक बेहतर जीवन को बढ़ावा दे रहे हैं।
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हम अपने उन छिपे हुए हिस्सों को नहीं देखना चाहते
जो पीड़ा और मृत्यु की अनदेखी कर रहे हैं।
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यह विश्वास जो हमारी सोच और विचार से आया है
कि हम कैंसर, भूख, आतंक, या
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किसी भी दुश्मन के खिलाफ युद्ध जीत सकते हैं,
दरअसल हमें इस धोखे में रखता है कि
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हमें इस ग्रह पर जीने के तरीके को बदलने की
कोई आवश्यकता नहीं है।
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आंतरिक दुनिया वह जगह है जहां
क्रांति सबसे पहले होनी चाहिए।
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जब हम अपने अंदर जीवन के सर्पिल चक्र को
महसूस कर सकेंगे, तभी बाहरी दुनिया
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ताओ के अनुसार हो पाएगी।
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तब तक, हम जो कुछ भी करते हैं वह मन द्वारा
फैलाई गई अराजकता को ही बढ़ाएगा।
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युद्ध और शांति एक अंतहीन नृत्य में साथ-साथ पैदा होते है;
ये दोनों एक साथ चलते रहते हैं।
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एक दूसरे के बिना नहीं जी सकते।
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जैसे अंधेरे के बिना प्रकाश, और
धरातल के बिना ऊंचाई नहीं रह सकती।
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ऐसा लगता है जैसे दुनिया को चाहिए बिना अंधेरे के रोशनी,
बिना खालीपन के पूर्णता, बिना उदासी के
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खुशी।
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मन जितना अधिक संलग्न होता है, उतनी ही ज़्यादा
यह दुनिया बिखर जाती है।
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अहंकारी दिमाग से आने वाला हर समाधान
इस विचार से प्रेरित होता है कि कहीं कोई समस्या है,
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और समाधान, हल करने की कोशिश से भी
अधिक बड़ी समस्या बन जाता है।
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जिसका आप विरोध करते हैं वह बरक़रार रहता है।
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मानवीय सरलता नए एंटीबायोटिक्स बनाती है किन्तु
प्रकृति दो कदम आगे ही रहती है और बैक्टीरिया को
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और मज़बूत बना देती है।
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इस लड़ाई में हमारे द्वारा किये गए सारे प्रयासों के बावजूद,
कैंसर का प्रसार वास्तव में बढ़ रहा है,
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दुनिया में भूखे लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है,
दुनिया भर में आतंकवादी हमलों की संख्या
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बढ़ती जा रही है।
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हमारे दृष्टिकोण में क्या गलत है?
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गोएथे की कविता में ओझा के चेले की तरह ही,
हमने एक महान शक्ति पा तो ली है,
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लेकिन उसे इस्तेमाल करने की समझ नहीं है।
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समस्या यह है कि हम जिस उपकरण का उपयोग करते हैं
उसकी हमें समझ ही नहीं हैं।
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हम मानवीय मन और उसकी उचित भूमिका
और उद्देश्य को समझते ही नहीं हैं।
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जिस सीमित नियंत्रित तरीके से हम सोचते हैं, महसूस करते हैं
जीवन का अनुभव प्राप्त करते हैं उसी से
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संकट पैदा होता है।
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हमारे तर्कवाद ने हमें कई प्राचीन संस्कृतियों के ज्ञान को
पहचानने और अनुभव करने की हमारी क्षमता को
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समाप्त कर दिया है।
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हमारी अहंकारी सोच ने हमें जीवन की गहराई और
प्रकांड पवित्रता, जीवन के असली मालिक,
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और एक अलग स्तर की समझ को महसूस करने की
क्षमता से वंचित कर दिया है जो अब
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लगभग मानवता के सामने हार चुका है।
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मिस्र की प्राचीन परंपरा में, नेटर्स ठेठ किस्म के
वे चरित्र होते थे जिन की विशेषताएं उन लोगों में
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आ जाती थी जो अपने शारीरिक और आध्यात्मिक शरीर को
इस तरह स्वच्छ करते थे जिससे वह ऊंचे दर्जे की
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चेतना को अपने अंदर रखने के काबिल हो जाते थे।
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मूल नेटर या ज्ञान के इस दिव्य सिद्धांत को
थॉथ या तेहुति के नाम से जाना जाता था।
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अक्सर ऐसे लेखक के रुप में दर्शाया जाता था जिसका सिर
चिड़िया या इबिस जैसा है, और जो सारे ज्ञान और
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विद्या के मूल का प्रतिनिधि है।
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थॉथ को सोच या विचार के ब्रह्माण्डीय
सिद्धांत के रूप में भी बताया जा सकता है।
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थॉथ ने हमें भाषा, विचार, लेखन, गणित,
और मन की सभी कलाएँ
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और अभिव्यक्तियां दी हैं।
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केवल उन लोगों को ही थॉथ के पवित्र ज्ञान को जानने की
अनुमति मिली जिन्हे विशेष प्रशिक्षण मिला था।
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थॉथ की पुस्तक कोई भौतिक पुस्तक नहीं,
बल्कि आकाशीय दुनिया का
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ज्ञान है।
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ऐसा कहा जाता है कि थॉथ का ज्ञान प्रत्येक मनुष्य के भीतर
बड़ी गहराई में एक गुप्त स्थान में छिपा था,
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और एक सुनहरी नागिन द्वारा संरक्षित किया गया था।
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खजाने की रक्षा करने वाले सांप या
ड्रैगन का मिथक ऐसा है जो
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कई संस्कृतियों में विद्यमान है और कुंडलिनी शक्ति,
ची, पवित्र आत्मा और आंतरिक ऊर्जा
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जैसे नामों से बुलाया गया है।
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सुनहरी नागिन उस अहंकारी निर्माण जैसी है
जो आंतरिक ऊर्जाओं से बंधी हुई है और जब तक
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इसमें महारत और इस पर काबू नहीं पाया जा सकेगा,
आत्मा कभी भी सच्चा ज्ञान नहीं पा पाएगी।
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ऐसा कहा जाता था कि थॉथ की पुस्तक पढ़ने वाले को
केवल पीड़ा ही मिली,
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इसके बावजूद की देवताओं के रहस्य
और सितारों में छुपी ही हर बात
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वे जान जाते थे।
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यह समझना चाहिए कि जिस भी व्यक्ति ने पुस्तक पढ़ी,
जिस भी अहंकार ने इसे नियंत्रित करने की कोशिश की
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उसे पीड़ा ही मिली है।
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मिस्र की परंपरा में जागृत चेतना की पहचान
ओसिरिस से की गयी है।
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इस जागृत चेतना के बिना, सीमित आत्म द्वारा
प्राप्त कोई ज्ञान या समझ
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खतरनाक, और उच्च ज्ञान से अलग होगा।
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होरस की आंख खुली ही रहनी थी।
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यहां पर पाया जाने वाला गूढ़ अर्थ
ईडन के बगीचे की जानी पहचानी
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कहानी "द फॉल" के समान है।
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थॉथ की किताब अच्छाई-बुराई के ज्ञान की उस किताब की तरह है
जिसका फल खाने का लालच
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आदम और ईव को हुआ था।
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मानवता पहले ही वर्जित फल खा चुकी है,
थॉथ की पुस्तक को पहले ही खोल चुकी है, और
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बगीचे से बाहर निकाल दी गई है।
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सांप उस मौलिक सर्पिल की तरह है जो
छोटी दुनिया से लेकर सारी दुनिया तक
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फैला हुआ है।
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आज सांप आपकी तरह जी रहा है।
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यह अहंकारी मन है जिसे इस दुनिया के रूप में
बताया गया है।
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हम पहले कभी इतने ज्ञान तक नहीं पहुंच पाए थे।
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हम इस भौतिक संसार की गहराई में जा चुके हैं, यहां तक कि
तथाकथित ईश्वरीय कण भी ढूंढ रहे हैं, लेकिन
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हम कभी भी इतने सीमित, अपने वजूद, अपने
रहन-सहन से अनजान नहीं थे, और हम यह भी
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नहीं समझ पाते कि हम कैसे पीड़ा पैदा कर रहे हैं।
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हमारी सोच ने ही आज की इस दुनिया को बनाया है।
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जब भी हम किसी चीज़ को अच्छा या बुरा कहते हैं,
या अपने मन में कोई पसंद बना लेते हैं तो यह
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अहंकार निर्माण या स्वार्थ के पैदा होने से होता है।
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समाधान शांति के लिए लड़ना या प्रकृति पर विजय पाना नहीं,
बल्कि इस सत्य को पहचानना है;
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कि अहंकार निर्माण का होना द्वन्द्व, अपना और पराया,
तेरा-मेरा, मानव और प्रकृति,
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अंदरूनी और बाहरी में विभाजन पैदा करता है।
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अहंकार हिंसा है; इसे अपने अस्तित्व के लिए दूसरे से
एक अवरोध, एक परिधि की आवश्यकता होती है।
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अहंकार के बिना किसी के विरुद्ध कोई युद्ध है ही नहीं।
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लाभ के लिए कोई अहंकार, कोई अतिव्यापी प्रकृति नहीं है।
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हमारी दुनिया में ये बाहरी संकट गंभीर आंतरिक संकट को
दर्शाते हैं; हम नहीं जानते कि हम
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कौन हैं।
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हमें हमारी अहंकारी पहचान से जाना जाता है,
डर से हम भरे रहते हैं और
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अपनी असली प्रकृति से दूर हो जाते हैं।
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जातियां, धर्म, देश, राजनीतिक संबद्धता,
हम जिस भी समूह से संबंधित होते हैं, सब
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हमारी अहंकारी पहचान को मज़बूत करते हैं।
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आज ग्रह पर मौजूद लगभग हर समूह
अपने परिप्रेक्ष्य को वैसे ही सत्य बताता है,
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जैसे हम व्यक्तिगत स्तर पर करते हैं।
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सच्चाई को अपना बताकर, समूह अपने
अस्तित्व को उसी तरह बढ़ावा देता है जैसे
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अहंकार या आत्म संरचना अपने आप को
दूसरे के विरुद्ध परिभाषित करता है।
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अब पहले से भी ज़्यादा भिन्न वास्तविकताएं और
ध्रुवीकृत विश्वास तंत्र पृथ्वी पर एक साथ
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रह रहे हैं।
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ऐसा हो सकता है कि एक ही बाहरी घटना के प्रति
अलग अलग व्यक्ति बिलकुल ही अलग
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विचारों और भावनात्मक प्रतिक्रियाओं का अनुभव करें।
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इसी तरह, संसार और निर्वाण,
स्वर्ग और नरक, एक ही दुनिया के
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दो अलग-अलग आयाम हैं।
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एक घटना जो किसी व्यक्ति को सर्वनाशक लगे,
दुसरे के लिए आशीर्वाद भी बन सकती है।
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तो यह स्पष्ट हो रहा है कि आपकी बाहरी परिस्थितियों को
आपकी आतंरिक दुनिया को किसी भी रूप में
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प्रभावित करने की आवश्यकता नहीं है।
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समाधि का एहसास करने का मतलब स्वतः गतिमान पहिया बनना,
स्वायत्त होना, स्वयं ब्रह्मांड होने
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जैसा है।
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आपके जीवन का अनुभव बदलती घटनाओं के लिए
प्रासंगिक नहीं है।
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मेटाट्रॉन के क्यूब से समानता दर्शाई जा सकती है।
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विभिन्न प्राचीन ईसाई, इस्लामी और यहूदी ग्रंथों में
मेटाट्रॉन का उल्लेख किया गया है, और यह मूल रूप से
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मिस्र के थौथ के साथ साथ ग्रीस के
हर्मीस ट्राइस्मेजिस्टस से संबंधित है।
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मेटाट्रॉन टेट्रैग्रामेटन से बहुत ही करीब से जुड़ा हुआ है।
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टेट्रैग्रामेटन एक मौलिक ज्यामितीय पैटर्न है,
भौतिक सच्चाई का नमूना या मूल उत्पत्ति,
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जिसे ईश्वर की दुनिया या लोगोस भी कहा जाता है।
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यहां हम आकार का द्वी-आयामी रूप देख रहे हैं,
लेकिन यदि आप एक दूसरे तरीके से देखें,
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तो आपको एक थ्री-डी क्यूब दिखाई देता है।
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जब आप क्यूब देखते हैं, तो आकार में कुछ बदलाव नहीं होता,
लेकिन आपका दिमाग आपके
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देखने के तरीके में एक नया आयाम जोड़ चुका है।
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आयामी स्वरूप या किसी का दृष्टिकोण
दुनिया को देखने के एक नए तरीके का
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आदी हो जाने की बात है।
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समाधि प्राप्त करने पर हम परिप्रेक्ष्य से या
नए दृष्टिकोण बनाने के लिए स्वतन्त्र हो जाते हैं, क्योंकि
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कोई आत्म केंद्रित या किसी विशेष दृष्टिकोण से
जुड़ाव नहीं होता।
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मानव इतिहास में सबसे महान बुद्धिजीवियों ने
अक्सर सीमित आकारों से दूर के विचारों की ओर
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इशारा किया है।
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आइंस्टीन ने कहा है, "मनुष्य की सही औकात
मुख्य रूप से इस बात से निर्धारित होती है कि
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उसने खुद से आज़ादी कैसे पाई है। "
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तो ऐसा नहीं है कि अपने बारे में सोच और अस्तित्व बुरा है,
सोच एक अद्भुत चीज़ है जब दिमाग
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दिल की सेवा करता है।
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वेदांत में यह कहा गया है कि मन एक अच्छा सेवक बन सकता है
लेकिन वह एक खराब गुरु है।
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अहंकार हमेशा भाषा और नाम के ज़रिये सतत रूप से शुद्ध होता रहता,
और लगातार निर्णय लेता रहता है।
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एक की जगह दूसरी चीज़ को तरजीह देना।
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जब मन और इंद्रियां आपके स्वामी होते हैं, तो वे
अंतहीन पीड़ा, अंतहीन लालसा और उलझन देंगे,
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हमें सोच के मैट्रिक्स में बंद करते हुए।
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यदि आप समाधि का एहसास करना चाहते हैं, तो
अपने विचारों को अच्छे या बुरे के रूप में न देखें, बल्कि पता लगाएं
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इंद्रियों से पहले, सोचने से पहले आप कौन हैं।
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जब सारे नाम त्याग दिए जाते हैं तो चीजों को
उनके असली स्वरूप में देखना संभव हो जाता है।
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जिस क्षण एक बच्चे को यह बताया जाता है कि पक्षी क्या है,
और अगर वे उन्हें बताई गई बात को मान जाते हैं तो वे
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फिर कभी पक्षी नहीं देख पाते।
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वे केवल अपने विचार देखते हैं।
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ज्यादातर लोग सोचते हैं कि वे
स्वतंत्र, सचेत और जागृत हैं।
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अगर आपको लगता है कि आप पहले से ही जागे हुए हैं,
तो आप उसे पाने के लिए मुश्किल काम क्यों करेंगे
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जिसे आप पहले से ही अपने पास मौजूद मानते हैं ?
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जागने से पहले, यह स्वीकार करना
आवश्यक है कि आप सो रहे हैं,
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मैट्रिक्स में जी रहे हैं।
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अपने आप से झूठ बोले बिना, ईमानदारी से
अपने जीवन को परखें।
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क्या आप अपनी मर्ज़ी से अपने रोबोट जैसे,
दोहराव वाली जीवन शैली को रोकने में सक्षम हैं?
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क्या आप खुशी की तलाश करना और दर्द से भागना बंद कर सकते हैं,
क्या आप कुछ खाद्य पदार्थों, गतिविधियों, दिल बहलाने वाली चीज़ों के
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आदी हैं?
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क्या आप लगातार निर्णय ले रहे हैं, दोष दे रहे हैं,
खुद की और दूसरों की आलोचना कर रहे हैं?
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क्या आपका दिमाग लगातार उत्तेजना की तलाश करता है,
या क्या आप शांति में जीकर पूरी तरह से
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संतुष्ट हैं?
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क्या आप इस बारे में प्रतिक्रिया करते हैं कि
लोग आपके बारे में क्या सोचते हैं?
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क्या आप अनुमोदन, सकारात्मक प्रबलता चाहते हैं?
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क्या आप अपने जीवन की परिस्थितियों को
किसी तरह कमजोर करते हैं?
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अधिकांश लोग अपने जीवन का अनुभव
उसी तरह करेंगे जैसे वे कल और अब से
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एक साल बाद, और अब से दस साल बाद करेंगे।
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जब आप अपनी रोबोट जैसी प्रकृति का समझने लगते हैं
तो आप अधिक जागृत हो जाते हैं।
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आप समस्या की गहराई को पहचानना शुरू कर देते हैं।
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आप पूरी तरह नींद में डूबे हुए हैं, सपने में खोए हुए हैं।
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प्लेटो की गुफा के निवासियों की तरह, इस सत्य को
सुनने वाले अधिकतर लोग अपने जीवन को
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बदलने के लिए न तो तैयार होंगे न काबिल होंगे
क्योंकि वे अपने पारिवारिक तरीकों से जुड़े हुए हैं।
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हम अपने तरीकों को न्यायसंगत बताने के लिए काफी आगे
चले जाते हैं, सत्य का सामना करने की जगह
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अपने सिर को मिटटी में दबा लेते हैं
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हम अपने रक्षक चाहते हैं, लेकिन हम खुद
सूली पर चढ़ने के लिए तैयार नहीं हैं।
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स्वतंत्र होने के लिए आप क्या कीमत चुका सकते हैं?
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यह समझें कि यदि आप अपनी आंतरिक दुनिया बदलते हैं, तो
आपको अपने बाहरी जीवन को बदलने के लिए भी तैयार रहना चाहिए।
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आपकी पुरानी संरचना और आपकी पुरानी पहचान को
वो मृत मिट्टी बनना चाहिए जिसमें से
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नई उत्पत्ति होती है।
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जागृति की तरफ जाने का पहला कदम यह
महसूस करना है कि हमें मानवता के मैट्रिक्स से,
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मुखौटे से पहचाना जाता है।
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हमारे भीतर किसी को यह सत्य सुनकर
नींद से जग जाना चाहिए।
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आपका एक हिस्सा है, कालनिर्पेक्ष,
जो हमेशा से सत्य को जानता है।
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दिमाग का मैट्रिक्स हमारा ध्यान भटकाता है, मनोरंजन करता है,
हमें अंतहीन रूप से लालसा और भटकाव के
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लगातार बदलते रूपों के चक्र में कार्य, उपभोग,
लालच करवाता रहता है, हमारी चेतना के खिलने,
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हमारी उत्पत्ति के जन्म-अधिकार से हमें दूर रखता है,
जिसे समाधि कहते हैं।
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तर्कहीन सोच सामान्य जीवन के लिए है।
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आपका दिव्य तत्व गुलाम बन चुका है,
सीमित आत्म संरचना से पहचाना जाता है।
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महान ज्ञान, आप कौन हैं यह सच्चाई
आपके अस्तित्व की गहराई में दफ़न है।
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जे कृष्णमूर्ति ने कहा है, "अत्यंत बीमार समाज के अनुसार
ढलना किसी के स्वास्थ्य का
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कोई मापदंड नहीं है। "
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अहंकारी दिमाग के रूप में चिह्नित होना
बीमारी है और समाधि इसका इलाज।
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इतिहास में साधु-संतों और जागृत प्राणियों
सभी ने आत्मसमर्पण के ज्ञान को सीखा है।
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सच्चे आत्म को महसूस करना कैसे संभव है?
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जब आप माया के पर्दे से झांकते हैं, और
भ्रमपूर्ण आत्म को छोड़ देते हैं, तो बचता क्या है?